Monday 31 October 2016


मेरी नजर में तो बूढ़ा हो गया है चुनारगढ़ में चन्द्रकांता का किला : संदीप राय

मिर्जापुर।: चुकी मैं तहसील चुनार के अंतर्गत और अदलहाट और बंगला बाजार के पास के एक ऐतिहासिक गांव से  मध्यम  वर्गीय परिवार से आता हु अतएव आज कुछ अपने गांव गिराव और जिले के बारे में अपनी जुबानी जो कुछ अभी तक सुन रखा हु या गूगल से पता किया है उसको कम शब्दो में बताता हु,

 उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर के चुनार में रहस्य, रोमांच, विस्मय और जादू की रोमांचक दास्तानों से भरपूर किवदंतियों एवं लोककथाओं के लिए विख्यात देश का अनोखा चन्द्रकांता का चुनारगढ़ का किला बूढ़ा हो गया है। गढ़ की दीवारें, प्राचीरें और चट्टानी जीवट वाले बुर्ज शताब्दियों से समय के निर्मम थपेड़ों की चोट झेलते-झेलते अब जर्जर हो चुकी है। समय के साथ अब इसकी चोट सहने की शक्ति लगभग खत्म हो रही है।
राजा भर्तहरी की तपोस्थली व हिन्दी के पहले उपन्यासकार देवकीनंदन खत्री की तिलिस्म स्थली चुनारगढ़ अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहा है और इस ओर किसी का ध्यान नही है। उत्तर भारत के शासकों के जय-पराजय का हमराज किसी समय ध्वस्त हो सकता है। हिन्दुओं की पवित्र धार्मिक नगरी वाराणसी जाने के लिए गंगा के लिए मार्ग प्रशस्थ करने वाले विंध्य पर्वत पर चरण आकार वाले इस किले का प्राचीन नाम चरणाद्रिगढ़ रहा है।
 उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर के चुनार में रहस्य, रोमांच, विस्मय और जादू की रोमांचक दास्तानों से भरपूर किवदंतियों एवं लोककथाओं के लिए विख्यात देश का अनोखा चन्द्रकांता का चुनारगढ़ का किला बूढ़ा हो गया है।

यदि विंध्याचल पर्वत नहीं होता तो गंगा वाराणसी की ओर न जाकर दक्षिण दिशा की ओर जाती। गंगा पर पुस्तक लिखने वाले विद्वानों ने अपनी पुस्तकों में इसका उल्लेख किया है। इतिहासकारों के अनुसार उत्तर भारत के प्रत्येक शासकों की दिलचस्पी चुनार के किले पर कब्जा जमाने की रही है। जिस विजेता का शासन दिल्ली से बंगाल तक हो जाता था उसके लिए चुनार का किला एक महत्वपूर्ण पड़ाव हो जाता था। इसके अतिरिक्त जलमार्ग से इस किले तक पहुंचना भी काफी आसान होता था।


मिर्जापुर के तत्कालीन कलक्टर द्वारा 1924 को दुर्ग पर लगाये एक शिलापत्र पर उत्कीर्ण विवरण के अनुसार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य के बाद इस किले पर 1141 से 1191 ई. तक पृथ्वीराज चौहान, 1198 में शहाबुद्दीन गौरी, 1333 से स्वामीराज, 1445 से जौनपुर के मुहम्मदशाह शर्की, 1512 से सिकन्दर शाह लोदी, 1529 से बाबर, 1530 से शेरशाहसूरी और 1536 से हुमायूं आदि शासकों का अधिपत्य रहा है। शेरशाह सूरी से हुए युद्ध में हुमायूं ने इसी किले में शरण ली थी।( ई सब हम देखले हई खुद जाके आपो लोग देख सकलैन)  खैर जहां तक इस किले के निर्माण का सम्बंध है कुछ इतिहासकार 56 ईपू में राजा विक्रमादित्य द्वारा इसे बनाया गया मानते हैं। कुछ इतिहासकार इसके निर्माण वर्ष पर अपनी मान्यता प्रदान नहीं करते। शेरशाह सूरी ने चुनार के दुर्ग का महत्व बेहतर समझा। चुनार से बंगाल तक सूरी के शासनकाल में कोई अन्य किला नहीं था। हालांकि बाद में शेरशाह ने बिहार के सासाराम में एक किले का निर्माण खुद कराया।
शेरशाह सूरी के पश्चात 1545 से 1552 तक इस्लामशाह, 1575 से अकबर के सिपहसालार मिर्जामुकी और 1750 से मुगलों के पंचहजारी मंसूर अली खां का शासन इस किले पर था। तत्पश्चात 1765 ई. में किला कुछ समय के लिए अवध के नवाब शुजाउदौला के कब्जे में आने के बाद शीघ्र ही ब्रिटिश आधिपत्य में चला गया। शिलापट्ट पर 1781 ई में वाटेन हेस्टिंग्स के नाम का उल्लेख अंकित है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस किले पर उत्तर प्रदेश सरकार का कब्जा है।
किले की ऐतिहासिकता का विवरण अबुलफजल के चर्चित आईने अकबरी में भी मिलता है। फजल ने इसका नाम चन्नार दिया है। लोकगाथाओं में पत्थरगढ़, नैनागढ़, चरणाद्रिगढ़ आदि नामों से जाने जानेवाला यह किला किवंदतियों के अनुसार विक्रमादित्य ने अपने भाई भतृहरि के लिए बनवाया था। विलासिता व भोग के जीवन से विरक्त भतृहरि ने यही तप साधना की थी। दुर्ग में आज भी उनकी समाधि बनी हुई है। हालांकि तमाम इतिहासकार इसे मान्यता नहीं देते हैं पर मिर्जापुर गजेटियर में इसका उल्लेख किया गया है।
गजेटियर में संदेश नामक राज का सम्बन्ध का भी उल्लेख है। माना जाता है कि महोबा के वीर बांकुरे आल्हा का विवाह इसी किले में सोनवा के साथ हुआ था। सोनवा मण्डप आज भी किले में मौजूद है। ऐतिहासिक एवं रहस्य रोमांच का इतिहास अपने हृदय में समेटे इस किले का इस्तेमाल फिलहाल पुलिस प्रशिक्षण केन्द्र के रुप में किया जा रहा है। लिहाजा पर्यटक इस किले के दीदार से वंचित रह जाते हैं।(ससुर के नाती सब हम सब को  घुसही नहीं देते केतनो बतावा की हम एहिजे के हई फिर भी )
पर्यटन को बढ़ावा देने का ढिढोरा पीटने वाली सरकारों का इस ओर ध्यान नही है दुर्ग जगह-जगह से दरक रहा है। यह ऐतिहासिक धरोहर किसी भी समय ध्वस्त हो सकता है। भले ही चन्द्रप्रकाश द्विवेदी के लोकप्रिय धारावाहिक चन्द्रकांता के बाद इसी नाम से एक और टेलीविजन धारावाहिक का प्रदर्शन शुरू होने वाला हो पर सरकार का ध्यान इस किले को बचाने की ओर नहीं है।

(रामपुर पढ़ते थे चंद्रकांता और शक्तिमान देखने के लिए सरपट चाल भाग कर आते थे, उस बक्त गांव में अगर लाइट कट जाती थी तो प्रदीप जो की मेरा मित्र हई बैटरी लगाकर देखते थे)




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